Aankh Micholi Review: किरदारों की खामियों से हंसाने की फिजूल कोशिश, बेसिर पैर की कॉमेडी में नहीं कोई दम


स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। फिल्‍म ओह माय गाड, आल इज वेल, 102 नाट आउट जैसी फिल्‍मों का निर्देशन कर चुके उमेश शुक्‍ला ने अब कॉमेडी फिल्‍म आंख मिचौली का निर्देशन किया है, मगर कमजोर स्क्रिप्‍ट की वजह से वह इस बार चूक गए।

आंख मिचौली की कहानी

‘आंख मिचौली’ पंजाब के होशियारपुर में रह रहे एक परिवार की कहानी है। खास बात यह है कि परिवार के हर शख्‍स में किसी न किसी प्रकार की कमी है। परिवार के मुखिया और आयुर्वेदिक डाक्‍टर नवजोत सिंह (परेश रावल) बुद्धिमान हैं, लेकिन भुलक्‍कड़ हैं।

उनके दो बेटे और एक बेटी पारो (मृणाल ठाकुर) है। बड़ा बेटा युवराज सिंह (शरमन जोशी) सुनने में अक्षम है। छोटा बेटा हरभजन सिंह (अभिषेक बनर्जी) हकलाता है। पारो को सूरज ढलने के बाद दिखना बंद हो जाता है। युवराज की पत्‍नी बिल्‍लो (दिव्‍या दत्‍ता) घर की जिम्‍मेदारी संभालती है। दोनों का एक बेटा भी है।

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पारो स्विट्जरलैंड में अपने दोस्‍तों के साथ घूमकर वापस आती है। वहां पर एक लड़के को पसंद करने लगती है, लेकिन लड़के ने उसकी ओर ध्‍यान नहीं दिया होता है। पारो को देखने के लिए रोहित पटेल (अभिमन्‍यु दसानी) अपने मामा (दर्शन जरीवाला) और मामी (ग्रुशा कपूर) के साथ उनके घर आता है।

रिश्‍ता पक्‍का हो जाता है, लेकिन दिक्‍कत पारो की है। पुरानी फिल्‍मों की ललिता पवार और निरूपा राय का कॉम्बिनेशन वाली उसकी भाभी चाहती है कि शादी से पहले लड़के को सब सच बता दिया जाए। उन्‍हें धोखा न दिया जाए। लड़के को देखने के बाद पारो को अहसास होता है कि यह वही लड़का है, जिसे वह पसंद करने लगी थी। रोहन भी उसे देखकर एक नजर में दिल दे बैठता है, लेकिन उसमें भी एक खामी है।

कैसा है स्क्रीनप्ले और अभिनय?

करीब तीन साल से अटकी यह फिल्‍म आखिरकार सिनेमाघरों में रिलीज हो गई है। जितेंद्र परमार लिखित उमेश शुक्‍ला निर्देशित यह फिल्‍म किरदारों की खामियों से हास्‍य पैदा करने की कोशिश करती है। थोड़ी देर बाद आप तैयार हो जाते हैं कि उन तीनों को कोई न कोई ऐसी गलती करनी ही है। लेखन स्‍तर पर कमजोर होने के कारण यह हास्‍य पैदा करने में नाकाम रहती है।

सूरज ढलने के बाद पारो को न दिखने वाला प्रसंग फिल्‍म बोल राधा बोल में कादर खान के किरदार की याद दिलाता है, जिसमें शाम ढलने के बाद उसकी आंखों का सूरज भी ढल जाता है। फिल्‍म का फर्स्‍ट हाफ किरदारों को स्‍थापित करने में काफी चला गया है।

पारो को देखने जब लड़के आते हैं तो उसकी कमी छुपाने के दृश्‍य में कोई धमाल नहीं होता। इस कमी के साथ कहानी को रोचक बनाने के लिए दमदार प्रसंगों की आवश्‍यकता थी, जो नदारद है। किरदारों की खामियों से होने वाले नुकसान को बहुत तेजी से शुरू में बता दिए गए हैं। फिर कहानी पारो की शादी के आसपास आ जाती है।

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उसमें होने वाली गड़बडि़या जबरन ठूंसी हुई लगती हैं। पारो को शाम को न दिखने के प्रसंग और लड़के की खामी को मिलाकर हास्‍य पैदा करने के दृश्‍य सतही हैं। डिनर के समय सांप का प्रकरण बहुत बचकाना है।

चुटकीले संवादों की कमी यहां अखरती है। फिल्‍म में भट्टी (विजय राज) का किरदार बिल्‍लो से शादी करना चाहता है। उसकी बहन रोहित से शादी करना चाहती है। पर यह किरदार उभर नहीं पाए। बेसिर पैर की यह फिल्‍म मनोरंजन करने में नाकाम रहती है।

कलाकारों में परेश रावल मंझे अभिनेता हैं। उन्‍होंने इस भूमिका में प्रभावित किया है, लेकिन उन्‍हें दमदार संवादों की आवश्‍यकता थी। अभिमन्‍यु दसानी का किरदार अधपका है। कॉमेडी में वह सहज नहीं लगते हैं। मृणाल ठाकुर मासूम लगी हैं, लेकिन कॉमेडी के लिए उन्‍हें भी बहुत मेहनत करनी होगी।

अभिमन्‍यु के साथ उनकी केमिस्ट्री रंग नहीं जमाती। अभिषेक बनर्जी अपने किरदार में बनावटी ज्‍यादा लगे हैं। दिव्‍या दत्‍ता बेहतरीन अभिनेत्री हैं। उनका किरदार दो अलग-अलग कहावतों को मिलाकर बोलता है। वह गठजोड़ लुभाता नहीं है। फिल्‍म का गीत संगीत भी औसत है।



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