Circus: 'तमाशा खत्म नहीं हुआ, जाइएगा नहीं...', सिनेमा में सर्कस की कलाबाजी
मुंबई। जोकर का तमाशा खत्म नहीं हुआ, जाइएगा नहीं…’ वर्ष 1970 में आई फिल्म मेरा नाम जोकर में इस संवाद के साथ, सर्कस के इर्द-गिर्द रची गई इस फिल्म की कहानी खत्म होती है। वह ऐसा दौर था, जब सिनेमा और रंगमंच के अलावा सर्कस मनोरंजन का प्रमुख साधन था। सिनेमा ने सर्कस का तंबू फिल्मों में भी गाड़ा, हालांकि अब यह चलन से बाहर होता जा रहा है। काफी समय के बाद सर्कस शीर्षक से रोहित शेट्टी फिल्म लेकर आ रहे हैं। प्रियंका सिंह व दीपेश पांडेय का आलेख…
साल 1948 में प्रदर्शित हुई तमिल फिल्म चंद्रलेखा में सर्कस अहम पात्र था। तमिल में भले ही यह फिल्म नहीं चली थी, लेकिन इसके हिंदी संस्करण ने अच्छी कमाई की थी। इसके बाद सर्कस क्वीन (1959), मेरा नाम जोकर (1970), मर्डर इन सर्कस (1971), अप्पू राजा (1989), फिर हेरा फेरी (2006), देख इंडियन सर्कस (2011), धूम 3 (2013), भारत (2019) राम सिंह चार्ली (2020) जैसी कई फिल्मों का अहम हिस्सा सर्कस रहा। शोमैन राज कपूर के करियर की सबसे बड़ी फ्लॉप फिल्म मेरा नाम जोकर आगे चलकर कल्ट क्लासिक साबित हुई थी। छह सालों में बनी यह फिल्म राज कपूर के दिल के बेहद करीब थी। राज कपूर के बेटे अभिनेता रणधीर कपूर कहते हैं कि मेरा नाम जोकर जब नहीं चली, तो वो बहुत निराश हो गए थे। फिल्म तब लोगों को समझ नहीं आई थी। आज हर किसी को यह अच्छी लगती है।
रूपक की तरह काम करता है सर्कस:
निर्देशक मंगेश हाडवले द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म देख इंडियन सर्कस को सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। मंगेश कहते हैं कि सर्कस को हमने फिल्म में रूपक की तरह प्रयोग किया था। कुछ जोकर एक कुर्सी पर बैठना चाहते हैं। सत्ता के लिए वैसी ही लड़ाई साल 2014 के पहले राजनीति में चल रही थी। फिल्म में जो बच्ची थी वो किसी भी कीमत पर सर्कस देखना चाहती थी। वह लक्ष्य के प्रति समर्पित आज के युवाओं की झलक दिखाती है। उस वक्त मुंबई के पास नालासोपारा में रैंबो सर्कस आया था। शूटिंग के लिए उसे 15 दिन किराए पर लिया। जो सर्कस में काम करते थे, उनके साथ वक्त बिताने का मौका मिला। जोकर हंसाता है, लेकिन पर्दे के पीछे उसकी जिंदगी बहुत कठिन है।
मुस्कुराहटों की पीछे सच्चाई:
फिल्म राम सिंह चार्ली में सर्कस के लोगों की जिंदगी की झलक दिखाई गई थी। इसके निर्देशक नितिन कक्कड़ कहते हैं कि बचपन में सर्कस में लाइव एक्ट देखने का अलग ही मजा था। वो म्यूजिक, पॉपकॉर्न, जोकर, एक अलग ही दुनिया होती थी। सब चकाचौंध लगता था। जब राम सिंह चार्ली के लिए शोध किया तो पता चला कि वहां जीवन बहुत ही कठिन है। राम सिंह चार्ली के जरिये कोशिश थी कि हम पर्दे के पीछे के कलाकारों की जिंदगी में झांककर देखें। सर्कस का सेट बनाने में भी काफी बजट लगता है, इसलिए फिल्मकार वास्तविक सर्कस में फिल्म शूट करते हैं। नितिन बताते हैं कि एक रियल सर्कस में वास्तविक कलाकारों के साथ उन्होंने शूट किया था। सबसे बड़ी चुनौती थी सर्कस को लोगों से भरा दिखाना। हम जिस गांव में शूट कर रहे हैं, वहां खबर फैलाई कि शाम का शो फ्री है और उसी दिन लाइव सर्कस में कुमुद भाई (कुमुद मिश्रा) ने भी परफॉर्म किया।
इसलिए फिल्मों से हो रहा गायब:
फिल्मों और वास्तविक जीवन से गायब होते सर्कस की वजहें बताते हुए मंगेश कहते हैं कि सर्कस का दोबारा खड़ा होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि मनोरंजन के दूसरे साधन बढ़ गए हैं। सर्कस करना खर्चीला होता है। उसमें अब जानवरों का ज्यादा प्रयोग भी नहीं कर सकते हैं, उनके लिए कई कानून बन गए हैं। जो चीज वास्तव में गायब हो रही है, वह फिल्मों में कैसे दिखेगी। इसका दूसरा पहलू भी है कि जब कोई चीज चली जाती है तो उसका मोल बढ़ जाता है। सिनेमा वास्तव में फिल्म निर्माण से ज्यादा उत्पाद गढ़ना है। प्रोडक्ट का डिजाइन बनता है कि वह कैसे दिखेगा, कैसे दर्शकों को आकर्षित करेगा। फिल्मों में सर्कस की झलक दिखा सकते हैं, लेकिन वास्तव में वह कैसा होता है, वह तो पता ही नहीं है। बच्चों को लगेगा कि असली सर्कस तो यही है। फिल्मकारों को जिन शहरों अब भी सर्कस पुराने अंदाज में होता है, वहां जाकर डाक्यूमेंट्री बनानी चाहिए।
दुनिया भर के दर्शन
फिल्मों में सर्कस को बतौर रूपक कई बार प्रयोग किया गया जैसे निर्देशक मंगेश हाडवले द्वारा लिखित और निर्देशित फिल्म देख इंडियन सर्कस, तो वहीं जोया अख्तर की फिल्म लक बाय चांस के गाने बावरे…को पुणे में रैंबो सर्कस की पृष्ठभूमि पर फिल्माया गया। विजय कृष्ण आचार्य अपनी फिल्म धूम 3 में सर्कस को फिल्माने के लिए शिकागो तक चले गए थे। वह कहते हैं कि मैं फिल्म में सर्क डू सोले टाइप का सर्कस दिखाना चाहता था। जिसमें जानवरों की जगह इंसान कलाएं प्रस्तुत करते हैं। हमने फिल्म के गाने मलंग… को इंग्लैंड की एक सर्कस कंपनी के साथ मिलकर बनाया था। उसमें करतब दिखाने वाले करीब 25 देशों के 200 कलाकार शामिल थे। सेट को बनाने में 40-45 दिन लगे। आमिर खान हो या कटरीना कैफ, सभी कलाकारों ने बिना बाडी डबल का प्रयोग किए हुए ज्यादातर स्टंट खुद ही किए थे।