Three Of Us Review: सूखे हुए रिश्तों को फिर से हरा करने की इमोशनल कहानी, जयदीप अहलावत की अदाकारी का नया अंदाज


स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। सिनेमैटोग्राफर से निर्देशक बने अविनाश अरुण धावरे की ‘थ्री ऑफ अस’ शीर्षक के अनुरूप तीन किरदारों की कहानी है, जिसके केंद्र में शैलजा है, जो डिमेंशिया (याददाश्‍त कमजोर होना) के शुरुआती चरण में है।

शैलजा के किरदार में शेफाली शाह हैं। वह सब कुछ भूलने से पहले वेंगुरला (कोंकण) जाना चाहती है, जहां उसका बचपन बीता है। वहां उसकी कुछ यादें दफन हैं, जिन्हें वो खोदना चाहती है। इस यात्रा में उसके साथ उसका पति दीपांकर (स्‍वानंद किरकिरे) भी आता है। पुराने दोस्‍तों, घर, स्‍कूल और पसंदीदा जगहों पर जाने पर शैलजा के किरदार की परत और गांठे खुलती हैं।

वहां पर वह अपने बचपन के सहपाठी और अधूरे प्‍यार प्रदीप कामथ (जयदीप अहलावत) को खोजती है। प्रदीप अब शादीशुदा है। शैलजा के साथ वह उन जगहों पर जाता है, जहां से उनकी खास यादें जुड़ी हैं। इस दौरान दीपांकर उनके साथ होता है। जिंदगी के पुराने घाव भी सामने आते हैं। क्‍या शैलजा की तलाश खत्‍म होगी, जिसके लिए यहां आई है, कहानी इस संबंध में है।

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चुस्त लेखन से गहरे हुए किरदार

सिनेमाघरों में रिलीज थ्री आफ अस कई फेस्टिवल् का सफर कर चुकी है। अविनाश अरुण, ओंकार अच्युत बर्वे और अर्पिता चटर्जी का लेखन फिल्म की आत्मा हैं। लेखन के स्‍तर पर हर किरदार पर गहराई से काम हुआ है। पाताल लोक वेब सीरीज का निर्देशन कर चुके अविनाश ने पुरानी यादों के साथ उन जगहों पर लौटने की खुशी, ग्‍लानि और वर्तमान के द्वंद्व को सुगठित तरीके से चित्रित किया है।

वर्षों बाद हो रही इस मुलाकात में प्रदीप पहली बार सहज नजर नहीं आता है। तुम बोलने को लेकर झिझक है। दीपांकर इस बात से नाराज है कि शैलजा ने उसे अपने बचपन के बारे में क्‍यों नहीं बताया। दूसरी ओर प्रदीप से मिलकर शैलजा खुश है।

वहीं, शैलजा की वापसी से स्‍तब्‍ध बैंक मैनेजर प्रदीप (जयदीप अहलावत) ने फिर से कविताओं को लिखना आरंभ कर दिया है। इस पर उसकी पत्‍नी उलाहना भी देती है। बहरहाल, शैलजा को खोने का प्रदीप को उतना अफसोस नहीं है। पत्‍नी सारिका (कादम्बरी कदम) के साथ उसका रिश्ता बहुत मजबूत नजर आता है।

कलाकारों का यादगार अभिनय

इस साल वेब सीरीज दिल्ली क्राइम 2 के लिए एमी अवार्ड में नामांकन पाने वाली शेफाली शाह यहां पर एक आम महिला की भूमिका में हैं। उनकी आंखें और खामोशी बहुत बार बिना संवाद के बहुत कुछ कह जाती हैं। डिमेंशिया से जूझ रही शैलजा की मनोवस्‍था, द्वंद्व और खुशी को उन्‍होंने बहुत संजीदगी से व्‍यक्‍त किया है।

इस अनूठी कहानी में रोमांस नहीं है, फिर भी बांधकर रखती है। यही इसकी खूबसूरती है। यह बचपन की मासूमियत को खोजने के बारे में है, जब हमारे दिल इतने बड़े थे कि दुनिया असीमित जगह की तरह महसूस होती थी। प्रदीप के किरदार में जयदीप साबित करते हैं कि वह हर प्रकार की भूमिका निभाने की सामर्थ्‍य रखते हैं।

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उनका किरदार मराठी है, लेकिन शौकिया कवि भी है, जो हिंदी में लिखता है और एक विशिष्ट उत्तर भारतीय शैली रखता है। यह थोड़ा चौंकाता है। फिल्‍म में शैलजा और प्रदीप के बीच कई दृश्‍य शानदार है। खास तौर पर क्‍लाइमैक्‍स में झूले वाला दृश्‍य, जहां पर शैलजा और जयदीप बचपन की आखिरी मुलाकात को याद करते हैं।

स्‍वानंद किरकिरे का अभिनय उल्लेखनीय है। पर्दे पर कोंकण की कलात्मक और नैसर्गिक सुंदरता को अविनाश अरुण ने कैमरे के लेंस से बहुत खूबसूरती से कैद किया है।



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