अभिनेता कुमुद मिश्रा ने डॉ. अरोड़ा में अपनी भूमिका को लेकर साझा किया अनुभव


प्रियंका सिंह। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर अपनी पसंद का कंटेंट पाने में अभिनेता कुमुद मिश्रा भी सफल साबित हुए हैं। रॉकस्टार, थप्पड़ जैसी फिल्मों का हिस्सा रह चुके कुमुद ने राम सिंह चार्ली फिल्म का जिम्मा अपने कंधों पर उठाया था। अब वह सोनी लिव की वेब सीरीज डॉ अरोड़ा की भूमिका में हैं। उनसे हुई बातचीत के अंश।

डिजिटल प्लेटफॉर्म पर टैबू विषयों पर बात करना क्या फिल्मों से ज्यादा आसान है?

हां, डिजिटल प्लेटफॉर्म ने आसानी कर दी है। मुझे लगता है कि टीवी और सिनेमा में भी अगर हम टैबू विषयों पर बात कर पाते, तो उतना ही सहज होना चाहिए। एक समाज के तौर पर यह हमारी अपनी उलझने हैं कि हम बहुत सारी चीजों को पर्दे के पीछे छुपाकर रखना चाहते हैं। इन विषयों पर बात करना हिम्मत का काम है। सिनेमा में इस विषय का मार्केट कितना बड़ा होगा, उसका अंदाजा लगाना मुश्किल होता है। फिल्म की कमाई किसी भी निर्माता के लिए बहुत मायने रखती है। हालांकि आप अच्छी कहानी को ईमानदारी से कहना चाहते हैं, तो लोग उसको देखेंगे।

क्या इस किरदार के लिए वाकई आपको किसी डॉक्टर्स से मुलाकात करनी पड़ी?

हां, इस विषय के जो डॉक्टर्स हैं, उनके पास मैं अपनी कुछ समस्याएं लेकर गया था। जाहिर है मैं यह देखना चाहता था कि मरीज से मिलने के बाद उनकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है। मेरे लिए यह जानना बहुत जरूरी था कि जब मेरे पास कोई आएगा, तो मैं उसे कैसे देखूंगा, क्योंकि मेरे पास कोई अनुभव नहीं था। मैं खुद ही इस विषय को नॉर्मल नहीं मान रहा था। अपने आप को सामान्य करने का इससे अच्छा तरीका नहीं हो सकता था। जब डॉक्टर से मिला, तो पता चला कि यह तो हमारे अपने दिमाग के बनाए हुए जाले हैं।

कलाकार कहते हैं कि वह लोगों से मिलजुल कर अपने अनुभव बनाते हैं। किसी को बिना जज किए, उन्हें सिर्फ ऑब्जर्व करना क्या कलाकार के लिए मुश्किल प्रक्रिया होती है?

मुझे लगता है कि किसी को भी जज करना गलत है। कोई भी चीज संपूर्ण सत्य और संपूर्ण असत्य नहीं होती है। हम हमेशा इसके बीच में कहीं ऑपरेट करते हैं। उसी तरह से अभिनेता के तौर पर जब मैं कोई किरदार करता हूं, तो मैं एक तरफा अप्रोच नहीं रख सकता हूं। मुझे उसके बारे में एक खुला दृष्टिकोण लेकर उसे देखना होता है। मैं  किरदार को खुले दृष्टिकोण से स्वीकार करना है, फिर उसके बारे में राय बनानी है।

आप कहानियों में क्या ढूंढते हैं?

मैं यही ढूंढता हूं कि वह कहानी और उनकी दुनिया वास्तविक हो और आपको बांधे रखे। जब मैं स्क्रिप्ट पढ़ता हूं, तो क्या वह स्क्रिप्ट मुझे बिना रुके अंत तक खींचकर ले जा रही है या नहीं। अगर वो लेखनी लेकर जा रही है, तो वह मेरे लिए किसी भी विषय पर हां कहने के लिए पहली शर्त होती है। फिर मेरा किरदार आता है। पहली प्राथमिकता हमेशा कहानी ही होती है।

स्क्रीन पर जो किरदार आप निभाते हैं, उनमें से आप पर उसका असर रह जाता है या अनुभव?

मुझ पर असर नहीं रहता है, लेकिन अनुभव जरूर रह जाता है। फिर चाहे वह अनुभव अच्छा हो या बुरा। वह मुझे कुछ दे जाता है। कुछ अनुभव गहरे होते हैं, जो लंबे समय तक आपके साथ चलते हैं, कुछ हल्के होते हैं। एक काम आप खत्म करते हैं, तो उस काम को वहीं छोड़कर उसका अनुभव संजोकर दूसरे काम की ओर बढ़ जाते हैं।

फिल्मों का कॉमर्स और इस इंडस्ट्री की चकाचौंध में से आप पर किन चीजों का प्रभाव ज्यादा रहा है?

मुझे फिल्म के बिजनेस से थोड़ा बहुत फर्क पड़ता है, लेकिन इस इंडस्ट्री से जुड़े ग्लैमर से कोई फर्क नहीं पड़ता है। बिजनेस का असर भी तब पड़ता है, जब मैं कोई इंडिपेंडेंट फिल्म कर रहा होता हूं। तब मन में रहता है कि यह अच्छी फिल्म है, लोगों को इसे अपनाना चाहिए। बाकी जो किरदार हमें मिलता है उसे ईमानदारी से करने तक ही हमारा काम सीमित होता है। लेकिन जब कभी मैं इंडिपेंडेंट फिल्में करता हूं, तो कहीं न कहीं दिमाग में रहता है कि इसके इकोनॉमिक्स सही काम करने चाहिए, जिससे निर्माता का पैसा निकल आए। बड़ी फिल्मों के साथ भी ऐसा होता है, तभी हर कोई बिजनेस कर पाएगा, कलाकारों को काम मिलेगा, इंडस्ट्री फलफूल पाएगी। जहां तक ग्लैमर की बात है, तो वह दूर-दूर तक मेरे जीवन का हिस्सा नहीं है।



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